राष्ट्र निर्माण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका

RN Tiwari sir
प्रो. रवीन्द्र नाथ तिवारी 
(लेखक भारतीय शिक्षण मण्डल महाकोशल प्रान्त शैक्षणिक गतिविधि प्रमुख हैं)

भारत प्राचीनकाल से ही सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक वैभव और आध्यात्मिक चेतना का केन्द्र रहा है, किंतु औपनिवेशिक शासन के लंबे दौर ने राष्ट्रीय जीवन को विभाजित और दुर्बल किया। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारतीय समाज आंतरिक विभाजन, जातिगत ऊँच-नीच, प्रांतीयता और राजनीतिक पराधीनता से जूझ रहा था। इसी कालखंड में आद्य सरसंघचालक परम पूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में की। उन्होंने यह अनुभव किया कि स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी, जब समाज संगठित, सशक्त और संस्कारित होगा। इसी दृष्टि से संघ का सूत्रपात हुआ तथा व्यक्ति निर्माण, अनुशासन और संगठन के माध्यम से संघ राष्ट्र जागरण का कार्य करता रहा। संघ का लक्ष्य भारत को स्वाधीन कर स्व-जागरूक, संगठित और समरस समाज का निर्माण करना था। यह शताब्दी यात्रा भारत के उत्थान की कहानी है। डॉ. हेडगेवार जी की दृष्टि, गुरुजी की वैचारिक मजबूती, बालासाहेब की सामाजिक समरसता, रज्जू भैया जी की संगठनात्मक दृढ़ता, सुदर्शनजी की वैचारिक स्पष्टता और वर्तमान में मोहन भागवत जी की समावेशी पहुंच से, संघ ने राष्ट्र निर्माण में अप्रतिम योगदान दिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे…” संघ के ध्येय और दर्शन का घोष है। यह केवल मातृभूमि की स्तुति नहीं, अपितु उसके लिए त्याग, समर्पण और बलिदान की प्रतिज्ञा है। यह प्रार्थना तीन मूल संदेश देती है: “पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते” राष्ट्र और मातृभूमि के लिए तन-मन-धन सर्वस्व अर्पित करने का भाव जागृत करना है। “विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिः” से संगठन और सामूहिक शक्ति का विश्वास प्रकट होता है कि संगठित समाज ही अजेय होता है। “वीरव्रतम्” संघ की कार्यपद्धति में संस्कार और ध्येयनिष्ठा के साथ-साथ अनुशासन, तपस्या और निरंतर साधना को रेखांकित करता है। संघ ने सामाजिक एकता और समरसता के लिए जाति, भाषा और प्रांतीयता के भेद मिटाते हुए सहयोग और समरसता की भावना विकसित की। संघ का समाज में राष्ट्रीयता की भावना को गहराई से स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यद्यपि संघ को स्वर्णिम और गौरवशाली यात्रा में कई विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ा। बाढ़, भूकंप, युद्ध या महामारी जैसी प्रत्येक आपदा में संघ के कार्यकर्ताओं ने अद्वितीय सेवा भाव का परिचय दिया।

शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में भी संघ का अद्वितीय एवं अनुकरणीय योगदान रहा है। अनुशासन, समयपालन, सहकारिता और राष्ट्रप्रथम की भावना को संघ ने समाज जीवन का हिस्सा बनाया। शिक्षा को केवल आजीविका का साधन नहीं, अपितु राष्ट्रोत्थान और आत्मोन्नति का मार्ग माना। इस प्रकार संघ शिक्षा को संस्कारों से जोड़कर राष्ट्र निर्माण की आधारशिला को सुदृढ़ करता है। इसी प्रकार सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी संघ की भूमिका उल्लेखनीय रही है। भारतीय भाषाओं, योग, आयुर्वेद, वेदांत और प्राचीन ज्ञान परंपरा के संरक्षण एवं संवर्धन का कार्य संघ निरंतर करता रहा है। भारतीय संस्कृति और गौरव को विश्व मंच पर प्रतिष्ठित करने में संघ प्रेरक शक्ति के रूप में उभरा है। अपने शताब्दी वर्ष में संघ आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन चुका है। इसकी 68,000 से अधिक शाखाएँ जिसे इस शताब्दी वर्ष में एक लाख तक ले जाने का लक्ष्य है। करोड़ों स्वयंसेवक समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय हैं और राजनीति, शिक्षा, संस्कृति, उद्योग, विज्ञान और प्रशासन, सभी क्षेत्रों में संघ के संस्कार प्राप्त व्यक्तित्व राष्ट्रहित में कार्य कर रहे हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विविध संगठन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अनवरत कार्य कर रहे हैं, जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, जो शिक्षा और युवाओं में राष्ट्रीय चेतना का संचार करता है; विद्या भारती, जो संस्कारित शिक्षा के माध्यम से भारतीय जीवन मूल्यों को बढ़ावा देता है; संस्कृत भारती, संस्कृत भाषा के साथ-साथ उसमें निहित साहित्य, परंपरा और ज्ञान प्रणालियों के निरंतर संरक्षण, विकास और प्रसार के लिए कार्यरत है; स्वास्थ्य और सेवा भारती, जो स्वास्थ्य सेवाओं और आपदा प्रबंधन में सक्रिय है; तथा किसान संघ जैसे संगठन, जो ग्रामीण और कृषि विकास के लिए कार्यरत हैं। भारतीय शिक्षण मंडल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में मूल्यों, संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना का समावेश करने के उद्देश्य से निरन्तर प्रयासरत है। संघ के सेवा प्रकल्पों की संख्या हजारों में है, जिनमें अनुसूचित जाति-जनजाति, ग्रामीण और शहरी झुग्गियों के उत्थान पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यही नहीं, संघ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है, जहाँ प्रवासी भारतीय समाज में उसकी शाखाएँ और संगठन सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। शताब्दी वर्ष पूर्ण होने पर विजयादशमी उत्सव, गृह संपर्क, जन गोष्ठी, हिंदू सम्मेलन, सद्भाव बैठकें, युवा सम्मेलन और शाखा विस्तार जैसे कार्यक्रम अगले दशहरे तक देशभर में सामाजिक एकता और जागरूकता के लिए आयोजित होंगे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सौ वर्षों की यात्रा में यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति निर्माण ही राष्ट्र निर्माण की आधारशिला है। शाखा में खड़े छोटे बालक से लेकर राष्ट्रीय जीवन के उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों तक, संघ ने राष्ट्रप्रेम और सेवा का संस्कार दिया है। यह केवल एक संगठन नहीं, अपितु भारत के जीवनमूल्यों और सांस्कृतिक चेतना का धड़कता हुआ हृदय है। संघ ने शताब्दी वर्ष में पंच-परिवर्तन पर विशेष जोर दिया है। ये पांच परिवर्तन “सामाजिक समरसता”, “कुटुम्ब प्रबोधन”, “पर्यावरण संरक्षण”, “स्वदेशी और आत्मनिर्भरता” और “नागरिक कर्तव्य” हैं जो भारतीय समाज को अगले कुछ वर्षों में दिशा देने वाले प्रमुख आदर्श हैं। इसी भाव को यह पंक्ति सशक्त रूप में व्यक्त करती है— “परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम् समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।” अर्थात्, संघ का अंतिम उद्देश्य भारत को परम वैभव की ओर ले जाकर विश्व में शांति और संस्कृति का मार्गदर्शक के रूप में स्थापित करना है। संघ के शताब्दी वर्ष पर लक्ष्य है कि प्रत्येक भारतीय राष्ट्र निर्माण में योगदान दे जिससे भारत पुनः विश्वगुरु बनकर संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन कर सके।

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