(लेखक, प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय रीवा में प्राचार्य हैं)
भारत की पावन भूमि में समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लेकर सम्पूर्ण मानवता के कल्याण में अतुलनीय एवं अप्रतिम योगदान दिया। यह वह धरा है जहाँ देवता भी अवतार लेने को अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी परंपरा में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भारतीय सनातन संस्कृति के बहुआयामी पक्षों को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया। यह सम्मेलन मूलतः कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज के 400 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित था। स्वामी विवेकानन्द को शिकागो यात्रा की प्रेरणा अपने शिष्यों और आध्यात्मिक गुरुओं से मिली। शिकागो पहुँचने पर विवेकानन्द को पता चला कि धर्म संसद में भाग लेने के लिए उन्हें आधिकारिक अनुमति नहीं मिली। वहाँ से वे बोस्टन पहुँचे जहाँ हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय में भाषण के लिए आमंत्रित किया। राइट उनके भाषण से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने धर्म संसद की अनुमति के संदर्भ में कहा, “आपका परिचय माँगना ठीक वैसा ही है जैसे सूर्य से स्वर्ग चमकने के लिए प्रमाण माँगना।”
11 सितंबर 1893 को शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने अपने ओजस्वी भाषण से विश्व का ध्यान भारतीय सनातन संस्कृति की ओर आकृष्ट किया। उनके मुख से निकले मात्र दो शब्द “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका” ने सभा को दो मिनट तक तालियों से गुंजायमान कर दिया था। यही थी भारतीय संस्कृति की प्रथम झलक। स्वामी विवेकानन्द सनातन संस्कृति के सच्चे पुरोधा थे, जिनके चिंतन में “विश्वबन्धुत्व” और “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना अटूट थी। उन्होंने कहा, “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने पर गर्व करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति की शिक्षा दी। भारत के लोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता ही नहीं रखते, बल्कि उन्हें सत्य मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का गौरव है जिसने पृथ्वी के सभी उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया।” यह सम्मेलन, जो सर्वश्रेष्ठ पवित्र सभाओं में से एक था, स्वतः गीता के उपदेश का प्रतिपादन करता है: “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।” अर्थात्, जो कोई मेरी ओर आता है, मैं उसी रूप में प्राप्त होता हूँ। सभी मार्ग अंततः मेरी ओर ही पहुँचते हैं। सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।
शिकागो प्रवास के दौरान विवेकानन्द ने तीन महत्वपूर्ण विचार प्रकट किए। पहला, भारतीय परंपरा सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करती है, केवल सहिष्णुता नहीं। दूसरा, बौद्ध धर्म के बिना हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के बिना बौद्ध धर्म अपूर्ण है। तीसरा, जो व्यक्ति अपने धर्म के विनाश और दूसरों के अस्तित्व का स्वप्न देखता है, उसे मैं दया से देखता हूँ। विरोध के बावजूद प्रत्येक धर्म का झंडा संघर्ष के स्थान पर सहयोग, विनाश के स्थान पर सम्मिलन, और मतभेद के स्थान पर सद्भाव व शांति का संदेश देगा। चार वर्षों की अमेरिका और यूरोप यात्रा के पश्चात भारत लौटते समय एक युवक ने पूछा, “समृद्ध देशों में रहने के बाद भारत के बारे में क्या कहेंगे?” उनका उत्तर था, “पहले मुझे भारत से प्रेम था, अब उसके धूल कण भी प्रिय हैं।” स्वामी विवेकानन्द का दर्शन और जीवन भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है। उन्होंने युवाओं को कठोपनिषद् का मंत्र उद्धृत कर आह्वान किया: “उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरानिबोधत।” अर्थात्, उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो। जैसा कि विदित है कि भारत वर्तमान में सर्वाधिक युवा जनसंख्या वाला देश है और युवाओं के मार्गदर्शन के लिए उनकी क्षमता का सदुपयोग आवश्यक है। उन्हें राष्ट्र निर्माण में लगाना चाहिए। युवा अपनी धारणा और योग्यता से सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
स्वामीजी ने युवाओं के चरित्र निर्माण के लिए पाँच सूत्र दिए: आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान, आत्मसंयम और आत्मत्याग। उन्होंने गरीबी को ईश्वर से जोड़कर “दरिद्रनारायण” की अवधारणा दी, ताकि वंचितों की सेवा के प्रति जागरूकता आए और उनकी स्थिति सुधरे। उनके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा, ज्ञान और धन अर्जित करने का प्राकृतिक अधिकार है। प्रत्येक में मानव गरिमा और सम्मान की भावना विकसित होनी चाहिए। स्वस्थ और सम्पन्न व्यक्ति से मजबूत राष्ट्र बनेगा। उन्होंने नागरिकों को देशभक्त बनने का आह्वान किया। विवेकानन्द ने शिक्षा पर कहा कि मन की एकाग्रता, चरित्र गठन, व्यक्तित्व विकास, आत्मविश्वास, श्रद्धा और वेदांत का समावेश आवश्यक है। शिक्षा वह पूर्णता व्यक्त करना है जो मनुष्य में पहले से विद्यमान है। इसका सार मन की एकाग्रता है, तथ्यों का संकलन नहीं। जो शिक्षा जीवन-संग्राम में समर्थ न बनाए, चरित्र-बल, परहित भावना और सिंह-साहस न लाए, वह शिक्षा नहीं। शिक्षा से जीवन निर्माण, मनुष्यत्व प्राप्ति, चरित्र गठन और विचार सामंजस्य होता है। वेदांत के अनुसार, अबोध शिशु में भी ज्ञान का भंडार निहित है; आचार्य का कार्य उसे जागृत करना है। व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य अंतर कर्म से है। व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता कर्म पर निर्भर है। सामाजिक समानता सजगता से आएगी, जो शिक्षा से प्राप्त होगी।
विवेकानन्द भौतिकवाद के नकारात्मक प्रभाव से अवगत थे, इसलिए उन्होंने इसे आध्यात्मिकता के नियंत्रण में रखने की बात कही। अध्यात्म, त्याग और सेवाभाव को राष्ट्रवाद का अंग बनाया। वे गीता के कर्मयोग के सच्चे उपासक थे। राष्ट्रीयता के धार्मिक और आध्यात्मिक पक्षों पर प्रकाश डालकर उन्होंने भारतीय सनातन संस्कृति के गौरवशाली इतिहास की श्रेष्ठता स्थापित की। प्रतिभा और आदर्श की धरोहर, ज्ञान, विवेक और संयम की पूजक, विनयशील युगपुरुष स्वामी विवेकानन्द थे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व विश्व के लिए वन्दनीय और अनुकरणीय है। वे युवाओं के सदैव आदर्श और पथप्रदर्शक रहेंगे।