(लेखक, प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय रीवा में प्राचार्य हैं)
भारतीय सनातन संस्कृति में सम्पूर्ण सृष्टि को परिवार माना गया है, जहाँ प्रकृति के प्रत्येक रूप को ईश्वर का स्वरूप मानकर उसकी रक्षा को धर्म का अनिवार्य अंग के रूप में निरूपित किया गया है। पर्यावरण संरक्षण की यही भावना आज के संकटपूर्ण समय में और भी महत्वपूर्ण हो गई है। अनियोजित विकास और प्रदूषण ने वैश्विक पारिस्थितिकी संकटग्रस्त होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन में 5 जून को “विश्व पर्यावरण दिवस” घोषित किया। इसका उद्देश्य जागरूकता, राजनीतिक सहभागिता और सतत विकास को बढ़ावा देना है। विश्व पर्यावरण दिवस प्रत्येक वर्ष 5 जून को वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता और सहभागिता बढ़ाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। वर्ष 2025 की थीम – “प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करना” है। वर्तमान में संपूर्ण विश्व के लिए यह अत्यंत प्रासंगिक है, जहाँ प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन न केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा है, अपितु सामाजिक, आर्थिक और नीति निर्धारण की भी एक जटिल चुनौती बन चुका है। बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, उपभोक्तावाद और एकल-उपयोग प्लास्टिक की व्यापकता ने इस समस्या को और अधिक गम्भीर बना दिया है।
प्लास्टिक प्रदूषण को अब केवल समुद्री समस्या के रूप में नहीं, अपितु एक वैश्विक पर्यावरणीय संकट के रूप में देखा जा रहा है। यह समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को सर्वाधिक प्रभावित करता है, जहाँ समुद्री कचरे में प्लास्टिक का योगदान लगभग 85% हिस्सा है। प्रत्येक वर्ष लगभग 14 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक समुद्र में पहुंचता है, जिससे महासागरों में लगभग 170 ट्रिलियन प्लास्टिक कण तैरते हैं। इसका प्रभाव समुद्री जैव विविधता, आजीविका और पारिस्थितिकी पर विनाशकारी है, और इससे प्रति वर्ष लगभग 13 बिलियन डॉलर का पर्यावरणीय नुकसान होता है। गहरे समुद्र तल, जैसे फिलीपीन ट्रेंच में भी प्लास्टिक के अवशेष पाए गए हैं, जो इस समस्या की भयावहता की ओर इंगित करता है।
एक शोध से पता चलता है कि माइक्रोप्लास्टिक वायुमंडल के माध्यम से हजारों किलोमीटर दूर तक पहुंच रहे हैं। ये कण उच्च हिमालयी क्षेत्रों, आर्कटिक और अंटार्कटिका जैसे दुर्गम स्थानों में भी पाए गए हैं, जो इसकी वैश्विक व्यापकता दर्शाता है। पर्वतीय क्षेत्र, जो पहले अपेक्षाकृत सुरक्षित माने जाते थे, अब प्लास्टिक प्रदूषण से प्रभावित हैं। पर्यटन और वायुमंडलीय परिवहन के कारण इन क्षेत्रों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा बढ़ रही है। सीमित संसाधनों, दुर्गम भौगोलिक स्थितियों और लचर प्रबंधन व्यवस्था के कारण इन क्षेत्रों में प्लास्टिक से निदान एक बड़ी चुनौती बन चुका है।
भारत में प्रतिवर्ष लगभग 3.5 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से लगभग 50% ही पुनर्चक्रित हो पाता है। शेष प्लास्टिक या तो लैंडफिल्स में चला जाता है, जलाया जाता है, या खुले में छोड़ दिया जाता है, जिससे वायु, जल और भूमि सभी प्रदूषित होते हैं। सिंगल-यूज़ प्लास्टिक का उत्पादन और उपभोग, जैसे पॉलीबैग्स, स्ट्रॉ, कटलरी, पैकिंग मटेरियल आदि, आज भी प्रतिबंधों के बावजूद प्रचलित है। नीति आयोग के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति प्लास्टिक खपत औसतन 11 किलोग्राम है, जो विकसित देशों की तुलना में कम है, किंतु इसकी निपटान प्रणाली बेहद असंगठित और अव्यवस्थित है।
प्लास्टिक प्रदूषण का संकट कई स्तरों पर सामने आता है। पर्यावरणीय संकट – जिसमें भूमि और जल प्रदूषण, जैव विविधता का ह्रास और समुद्री जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव प्रमुख हैं। प्लास्टिक का सूक्ष्म कण नदियों, समुद्रों और यहाँ तक कि पीने के पानी में भी पाए जा रहे हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए घातक साबित हो सकते हैं। स्वास्थ्य संबंधी संकट – डाइऑक्सिन और फ्यूरान जैसे जहरीले तत्वों के कारण श्वसन, प्रजनन, हार्मोन असंतुलन तथा कैंसर जैसी बीमारियों की आशंका बढ़ रही है। आर्थिक संकट, जिसमें कचरा प्रबंधन की लागत एवं पुनर्चक्रण के लिए तकनीक का अभाव भी शामिल है।
इस संकट के निदान के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। नवाचार और स्टार्टअप इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। प्लास्टिक पुनर्चक्रण की दिशा में कई नवोन्मेषी पहलें प्रारंभ हुई हैं, जैसे प्लास्टिक ईंटें, सड़क निर्माण में प्लास्टिक का उपयोग, बायोएंजाइम से प्लास्टिक अपघटन आदि। नीति आयोग, अटल इनोवेशन मिशन, और विभिन्न राज्य सरकारें इस प्रकार की पहल को प्रोत्साहन दे सकती हैं। साथ ही, डिजिटल ट्रैकिंग और प्रमाणन प्रणाली के माध्यम से अपशिष्ट निपटान को पारदर्शी और उत्तरदायी बनाया जा सकता है। भारत सरकार ने 2016 में “प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम” पारित किए और 2021 में संशोधन के साथ 2022 से एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लागू किया किन्तु इनके जमीनी स्तर पर आशातीत परिणाम अभी आना शेष है।
अंततः, स्पष्ट होता है कि प्लास्टिक प्रदूषण केवल पर्यावरण का संकट नहीं है, अपितु यह एक सामाजिक, आर्थिक और नीतिगत चुनौती है। भारत को इस दिशा में बहु-आयामी रणनीति अपनानी होगी – जिसमें नीति निर्माण, सशक्त प्रवर्तन, नवाचार, जनभागीदारी और व्यवहार परिवर्तन सभी का समन्वय की आवश्यकता है। इस दिशा में सभी के सहयोग से निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है, तभी वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी प्लास्टिक मुक्त हो सकेगी।