धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा : सामाजिक चेतना के अग्रदूत

RN Tiwari sir
प्रो. रवीन्द्र नाथ तिवारी 
(लेखक, प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय रीवा में प्राचार्य हैं)

भगवान बिरसा मुंडा की एक ऐसे महान आदिवासी क्रांतिकारी नेता थे, जिनका संघर्ष ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ जनजागृति और प्रतिरोध का प्रतीक बन गया। भगवान बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और जनजातीय चेतना के अमर पुरोधा थे, जिनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातु गांव में हुआ था। उनके पिता सुगना पुर्ती और माता करमी पुर्ती निषाद समुदाय से थे। बचपन में ही बिरसा कुशाग्र बुद्धि के थे। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने साल्गा गांव में प्राप्त की, फिर जयपाल नायक की प्रेरणा से बुर्जू गांव के विद्यालय में दाखिला लिया। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में उन्हें क्रिश्चियन बनाया गया, लेकिन बाद में उन्होंने वैष्णव संत आनंद पांडे के संपर्क में आकर हिंदू धर्म को अपनाया।

भगवान बिरसा मुंडा

बिरसा ने देखा कि ब्रिटिश सरकार और मिशनरियों ने जनजातीय जीवन, धर्म और संस्कृति पर हमला किया है। उन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों और कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई और मुंडा समाज को संगठित किया। वर्ष 1895 में उन्होंने स्वयं को “धरती आबा” घोषित किया और एक सशक्त आंदोलन की नींव रखी, जिसे बाद में उलगुलान (महाविद्रोह) के नाम से जाना गया। उनका उद्देश्य था—जनजातीय समाज के जल, जंगल और जमीन की रक्षा करना और अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाना। उनका राजनीतिक प्रभाव बढ़ता गया और उनके अनुयायियों ने उन्हें ईश्वर तुल्य मानकर “भगवान बिरसा” कहना शुरू किया। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और धार्मिक शुद्धता पर बल दिया। सिंगबोंगा (सूर्य देव) की उपासना को पुनर्जीवित किया। अकाल व महामारी के समय लोगों की सेवा की, जिससे उनके प्रति श्रद्धा और गहरी हो गई। उनके पास आने वाले बीमार लोगों को वे ओषधि और आश्वासन देते, जिससे लोगों को उनमें दैवीय शक्ति का अनुभव होता था।

बिरसा के सेनापति गया मुंडा थे, जिनके नेतृत्व में खूंटी थाना व गिरजाघरों पर हमले हुए। इसने अंग्रेजी शासन और मिशनरियों को डरा दिया। पादरी हॉफमैन ने सरकार को सचेत किया कि बिरसा सभी मिशनरियों की हत्या की योजना बना चुके हैं। इसी आशंका के चलते 22 अगस्त 1895 की रात को सोते समय गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें खूंटी में खुले दरबार में पेश किया गया, पर जनआक्रोश के चलते कोर्ट नहीं लग सकी। अंततः उन्हें दो वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी गई और हजारीबाग जेल भेजा गया। कारावास से लौटने के बाद पूरे क्षेत्र में घूमकर अपना संगठन और मजबूत किया। सूदखोर महाजन, जमींदार और अंग्रेज अफसरों की मिलीभगत से हो रहे शोषण के विरुद्ध उन्होंने जनजातियों को संगठित किया। उलगुलान का उद्देश्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा भी था। उनके नेतृत्व में चल रहे इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 1908 में ब्रिटिश सरकार को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू करना पड़ा, जो आदिवासियों की भूमि सुरक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम था। जनवरी 1900 में अपने साथियों के साथ डोंबरी पहाड़ी पर गुप्त बैठक कर रहे थे, जिसकी सूचना अंग्रेजों को मिल गई। 3 मार्च 1900 को जामकोपाई जंगल में अंग्रेजों ने उन्हें 460 साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया। इसमें से एक को मृत्युदंड, 39 को आजीवन कारावास और अन्य को लंबी सजा मिली। अंग्रेजों के अनुसार उनकी मृत्यु 9 जून 1900 को रांची जेल में हैजा से हुई, परंतु यह मृत्यु आज भी संदिग्ध मानी जाती है।

बिरसा मुंडा का प्रभाव केवल उनकी मृत्यु तक सीमित नहीं रहा। आज भी झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। रांची के कोकर स्थित उनकी समाधि स्थल श्रद्धा का केंद्र है। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में कई संस्थानों, योजनाओं और पुरस्कारों के नाम रखे हैं। उन्होंने केवल एक जनजातीय आंदोलन नहीं चलाया, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की अलख जगाई। उनका जीवन हमें सिखाता है कि संघर्ष केवल अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि अपनी पहचान की रक्षा के लिए भी होता है। भगवान बिरसा मुंडा सामाजिक न्याय, आत्म-सम्मान और आदिवासी अधिकारों के लिए एक प्रखर आवाज़ भी थे। उनके नेतृत्व में शुरू हुआ मुंडा आंदोलन, आदिवासी समाज के भीतर चेतना, स्वाभिमान और बदलाव की अलख जगाने वाला क्रांतिकारी प्रयास था। उनकी विरासत आज भी आदिवासी समाज के संघर्षों और आकांक्षाओं के केंद्र में जीवंत रूप से मौजूद है।

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