(लेखक भारतीय शिक्षण मंडल महाकौशल प्रांत टोली के सदस्य हैं)
भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को परमात्मा से भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। यह परंपरा न केवल शिक्षा के माध्यम से ज्ञानार्जन का माध्यम रही है, बल्कि जीवन मूल्यों, नैतिकता और चारित्रिक विकास की आधारशिला भी रही है। गुरु पूर्णिमा, जिसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस दिन महाभारत, ब्रह्मसूत्र, 18 पुराणों और 6 शास्त्रों के रचयिता महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। वेदव्यास ने वेदों का सरलीकरण कर उन्हें जन-जन तक पहुँचाया और अपने शिष्यों को ज्ञान प्रदान किया, इसलिए यह तिथि ज्ञान-गुरु की पूजा का प्रतीक बन गई। महर्षि व्यास ने भारतीय संस्कृति, दर्शन और जीवन के सत्य को सरल भाषा में प्रस्तुत किया। उन्होंने माना कि जीवन में गुण-दोष दोनों सह-अस्तित्व रखते हैं। महाभारत के माध्यम से उन्होंने धर्म, नीति और कर्म के गूढ़ रहस्यों को आमजन तक पहुँचाया। श्रीकृष्ण ने उन्हें “मुनिनामव्यहम् व्यासः” कहकर विशेष सम्मान दिया। आज भी जिस स्थान से संस्कृति और ज्ञान की धारा प्रवाहित होती है, उसे व्यास पीठ कहा जाता है। समय के साथ व्यास पूजा ही गुरु पूजा बन गई, और इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में गुरु के प्रति श्रद्धा और आभार प्रकट करने हेतु मनाया जाता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरु को अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। “अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥” अर्थात् अज्ञान के अंधकार को दूर कर, ज्ञान की ज्योति से नेत्र खोलने वाले गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ। गुरु न केवल अज्ञान का अंधकार दूर करता है, बल्कि ज्ञानरूपी प्रकाश दिखाकर शिष्य के जीवन को दिशा देता है। गुरु और शिष्य का संबंध सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक होता है। गुरु के सान्निध्य में शिष्य विनम्रता, सेवा और जिज्ञासा से युक्त होकर ज्ञानरूपी अमृत को प्राप्त करता है। भारत भूमि को देवताओं ने भी धन्य कहा है क्योंकि यहां स्वर्ग की कामना के साथ-साथ मोक्ष की साधना भी की जाती है। इस साधना का पथ गुरु ही प्रशस्त करता है। गुरु का अर्थ है—जो स्वयं महान हो और शिष्य को भी महानता की ओर ले जाए। वह भूत, वर्तमान और भविष्य से शिष्य को परिचित कराता है। वायु पुराण में कहा गया है कि गुरु तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ हैं। गीता में कहा गया है कि जीवन को निष्काम, शांत और पवित्र बनाना ही सच्ची विद्या है, और यही शिक्षा सद्गुरु देता है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, सद्गुरु वह है जो गुरु परंपरा से शक्ति प्राप्त कर शिष्य के दोषों को दूर करे। भारतीय संस्कृति में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समकक्ष माना गया है—पथ प्रदर्शक, आदर्श और संरक्षक के रूप में। योग दर्शन में श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया, जिन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया। कालांतर में आत्मज्ञान देने वाले को गुरु और सांसारिक ज्ञान देने वाले को आचार्य कहा गया। राम, कृष्ण, अर्जुन, कर्ण और विवेकानन्द जैसे महान व्यक्तित्व अपने गुरुओं के कारण ही मानवता के लिए प्रेरणा बने।
प्राचीनकाल में भारत जब संपूर्ण विश्व में शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, तब इसका आधार गुरु, गुरुकुल और उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुल शिक्षा में विद्यार्थी गुरु के निर्देशन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेद, वेदांग, उपवेद, न्याय, मीमांसा, पुराण और धर्मशास्त्र का अभ्यास करते थे। यह शिक्षा न केवल आजीविका के लिए, बल्कि जीवन के समग्र विकास के लिए होती थी। शिक्षक (आचार्य) त्यागमूर्ति होते थे, जिन्हें धन की कोई लालसा नहीं होती थी। इस शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य व्यक्ति के चार पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—के माध्यम से संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास था। जब विश्व अज्ञानता में डूबा था, तब भारत के मनीषियों ने मानव को ज्ञान, संस्कार और विवेक से युक्त कर श्रेष्ठ बनाया। गुरुकुलों से कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी जैसे महान दार्शनिकों एवं विचारकों ने अपने ज्ञान से संपूर्ण भारतवर्ष का मार्गदर्शन किया। वर्तमान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से भारत सरकार इस प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए सतत प्रयासरत है।
भारतीय संस्कृति की इसी महान परंपरा के पुनर्जागरण के लिए भारतीय शिक्षण मंडल की स्थापना वर्ष 1969 में नागपुर में की गई। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय पुनरूत्थान के लिये प्राथमिक से लेकर उच्च्च शिक्षा तक सम्पूर्ण शिक्षा को भारतीय मूल्यों पर आधारित, भारतीय संस्कृति की जड़ों से पोषित तथा भारत केन्द्रित बनाने के लिये नीति, पाठ्यक्रम तथा पद्धति में भारतीयता को लाने के लिये आवश्यक अनुसंधान, प्रबोधन, प्रशिक्षण, प्रकाशन एवं संगठन का कार्य करना है। भारतीय संस्कृति आधारित गुरु-शिष्य परंपरा का पुनर्जीवन कर राष्ट्रनिर्माण में योगदान देने वाले समर्पित शिक्षकों का निर्माण करना है। इसी उद्देश्य से, प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के अवसर पर शिक्षण मंडल विद्यार्थियों में अपने शिक्षकों के प्रति श्रद्धा, आदर और कृतज्ञता की भावना को प्रोत्साहित करने हेतु व्यास पूजा कार्यक्रम आयोजित करता है। इस वर्ष भी पूरे भारत में शैक्षणिक संस्थानों में यह कार्यक्रम जुलाई मास में एक घंटे के लिए प्रस्तावित है, जिसमें छात्रों द्वारा शिक्षकों को सम्मानित कर इस परंपरा को जीवंत किया जाएगा। व्यास पूजा के अवसर पर गुरु परंपरा के आदर्शों को अपनाते हुए भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का संकल्प लेना होगा, तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी।