हिंदू नववर्ष : वैज्ञानिकता एवं महत्व

RN Tiwari sir
प्रो. रवीन्द्र नाथ तिवारी 
(लेखक, भारतीय शिक्षण मण्डल महाकौशल प्रान्त अनुसंधान प्रकोष्ठ के प्रान्त प्रमुख हैं)

हिन्दू नववर्ष अनादिकाल से मनाया जाने वाला एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पर्व है। यह भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय चेतना, प्राचीन वैज्ञानिक परंपराओं, वसुधैव कुटुंबकम् और विश्व कल्याण का प्रतीक है। यह दिन ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण है। हिन्दू नववर्ष का शुभारंभ चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है, जिसे देशभर में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। सिंधी समाज इसे चेटी चंड, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में उगादी, गोवा और केरल में संवत्सर पड़वो, कश्मीर में नवरेह, और मणिपुर में सजिबु नोंगमा पानबा के रूप में मनाता है। इस दिन को ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना इसी दिन प्रारंभ की थी। प्रभु श्रीराम और युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी तिथि को हुआ था। यह दिन शक्ति और भक्ति के प्रतीक नवरात्रि का भी प्रथम दिन होता है। 57 ईसा पूर्व, महान सम्राट विक्रमादित्य ने शकों के अत्याचारी शासन से भारत को मुक्त किया था और इसी विजय की स्मृति में विक्रम संवत् का प्रारंभ हुआ। उनके राज्याभिषेक का यह दिन भारतीय इतिहास में गौरव का प्रतीक बन गया। इस प्रकार, यह केवल नववर्ष ही नहीं, अपितु संस्कृति, परंपरा और विजय का उत्सव भी है, जो नए संकल्प और उमंग के साथ मनाया जाता है।

विक्रमी संवत को हिन्दू नववर्ष इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह प्राचीन हिन्दू पंचांग और कालगणना पर आधारित है। महान राजा विक्रमादित्य ने खगोलविदों की सहायता से इसे व्यवस्थित किया और प्रचलित किया। इसे नवसंवत्सर भी कहते हैं। हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं— तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वार। इसी पंचांग के आधार पर भारत में विक्रम संवत, श्रीकृष्ण संवत और शक संवत जैसे कई संवत प्रचलित हुए। प्रत्येक हिन्दू संवत का एक विशेष नाम होता है, जो संवत्सर के अंतर्गत रखा जाता है। संवत्सर का अर्थ होता है बारह माह का एक विशेष काल। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, यह बृहस्पति ग्रह के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं। कुल 60 संवत्सर होते हैं, और जब ये पूरे हो जाते हैं, तो एक चक्र पूरा माना जाता है। इन 60 संवत्सरों को तीन भागों में विभाजित किया गया है: ब्रह्माविंशति (1-20), विष्णुविंशति (21-40) और शिवविंशति (41-60)। प्रत्येक संवत्सर का अलग-अलग नाम होता है, जैसे— प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृषप्रजा चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, अव्यय, सर्वजीत, सर्वधारी विरोधी, विकृति, खर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्बी, विलम्बी विकारी, शार्वरी, प्लव, शुभकृत, शोभकृत, क्रोधी, विश्वावसु पराभव, प्ल्यंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत, परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति, दुन्दुभी, रूधिरोद्वारी, रक्ताक्षी, कोपन और अक्षय। इस तरह, विक्रम संवत केवल एक कालगणना प्रणाली ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति, खगोल विज्ञान और ऐतिहासिक परंपराओं का भी द्योतक है।

ब्रह्म पुराण में उल्लेख है कि “चैत्र मासे जगदब्रह्मा समग्रे प्रथमेऽहनि।” अर्थात, सृष्टि की रचना चैत्र मास के प्रथम दिन हुई थी। प्राचीन काल से ही यह परंपरा रही है कि चैत्र मास से पुराने कार्यों का समापन कर नए कार्यों की योजना बनाई जाती थी। यह मास वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है, जब प्रकृति स्वयं को नवीन रूप में ढालती है। पेड़-पौधों में नई कोंपलें फूटती हैं, खेतों में फसल पकने लगती है और किसान अपनी मेहनत का फल प्राप्त करता है। यह समय सौरमंडल और नक्षत्रों की दृष्टि से भी अत्यंत शुभ माना जाता है, जिससे किसी भी नए कार्य का शुभारंभ करना लाभदायक होता है। आज भी भारत में चैत्र माह में नए बहिखाते खोले जाते हैं, जो आर्थिक और व्यावसायिक दृष्टि से नववर्ष के महत्व को दर्शाता है। मार्च-अप्रैल का यह समय पृथ्वी और प्रकृति के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करती है और सूर्य की परिक्रमा समाप्त कर नए चक्र की शुरुआत करती है। भारत में प्राचीन विक्रम संवत पंचांग ही वह आधारशिला था, जिसने 12 महीने और 7 दिनों के सप्ताह की परंपरा शुरू की। इस गणना प्रणाली को कालांतर में यूनानियों, अरबों और अंग्रेजों ने भी अपनाया। यह दर्शाता है कि भारतीय समय गणना न केवल आध्यात्मिक और प्राकृतिक रूप से उपयुक्त थी, अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही है।

हिन्दू पंचांग केवल तिथियों की गणना भर नहीं, अपितु सूर्य, चंद्र और नक्षत्रों की सटीक चाल पर आधारित एक वैज्ञानिक पंचांग है। इसमें सौरमास, चंद्रमास, नक्षत्रमास और सावनमास जैसी चार प्रमुख प्रणालियाँ हैं, जो समय की गहराई को दर्शाती हैं। सौरमास 365 दिनों का होता है और मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क आदि राशियाँ इसके 12 महीने होते हैं। दूसरी ओर, चंद्रमास 354 दिनों का होता है, जिसके महीनों में चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि आते हैं। चूंकि चंद्रवर्ष, सौरवर्ष से 10 दिन छोटा होता है, प्रत्येक वर्ष यह अंतर बढ़ता जाता है। इस असंतुलन को ठीक करने के लिए प्रत्येक तीन साल में एक अतिरिक्त माह (मलमास/अधिमास) जोड़ा जाता है, जिससे हिन्दू पंचांग संतुलित रहता है। तीसरी गणना पद्धति नक्षत्रमास है, जो लगभग 27 दिनों का होता है। इसकी गणना चित्रा नक्षत्र से शुरू होती है, जो चैत्र मास में पड़ता है। इसके पश्चात सावनमास आता है, जो 360 दिनों का होता है और इसमें प्रत्येक माह 30 दिनों का निश्चित होता है। इसके अलावा, बृहस्पति की चाल के आधार पर प्रभव से लेकर अक्षय तक 60 संवत्सर होते हैं। प्रत्येक युग में 5 प्रकार के वत्सर होते हैं— संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर और युगवत्सर। हिन्दू नववर्ष केवल परंपरा नहीं, अपितु अत्यंत प्राचीन और वैज्ञानिक प्रणाली है, जो न केवल समय की सटीक गणना करती है, अपितु प्राकृतिक चक्रों के साथ भी पूरी तरह तालमेल बनाए रखती है। हिंदू नववर्ष विक्रम संवत 2082 की प्रत्येक जन को अनंत शुभकामनाएं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top