(लेखक, प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय रीवा में प्राचार्य हैं)
सौरमंडल में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन विभिन्न स्वरूपों में विद्यमान है। यह जीवन की विविधता पृथ्वी की अनूठी भौगोलिक, जलवायु एवं पारिस्थितिकीय विशेषताओं के कारण संभव हो सकी है। किंतु वर्तमान समय में तीव्र और अनियोजित विकास, साथ ही प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक एवं असंवेदनशील दोहन ने पृथ्वी की पारिस्थितिकी संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। जल चक्र, कार्बन चक्र, जैविक चक्र तथा वायुमंडलीय संतुलन जैसे प्रमुख प्राकृतिक चक्रों में असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, जिससे जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण, वायु एवं जल प्रदूषण जैसी अनेक पर्यावरणीय समस्याएं सामने आ रही हैं। इन समस्याओं के समाधान हेतु त्वरित और व्यवस्थित प्रबंधन रणनीति के साथ-साथ जन-जागरूकता और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से प्रति वर्ष 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है। यह दिवस पर्यावरण संरक्षण के महत्व को रेखांकित करता है तथा समाज को सतत विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करता है। वैश्विक पृथ्वी दिवस 2025, की थीम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ है, जो सामूहिक प्रयासों की शक्ति को रेखांकित करती है और पृथ्वी की सुरक्षा हेतु विश्व समुदाय को एकजुट होने का आह्वान करती है।
वर्तमान समय में पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं, उभरती हरित तकनीकों और नवीन सोच को समझना अत्यंत आवश्यक हो गया है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और भी स्पष्ट और गंभीर रूप में सामने आए हैं, जो वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। 2024 में वैश्विक महासागरों में समुद्री हीटवेव्स की आवृत्ति और तीव्रता में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, महासागरों के सतही तापमान में निरंतर वृद्धि के कारण समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। यह स्थिति समुद्री जैव विविधता, मछली पालन और तटीय समुदायों के लिए खतरा बन गई है । वैश्विक औसत सतही तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर (1850-1900) की तुलना में वर्ष 2024 में लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, जिससे यह अब तक का सबसे गर्म वर्ष बन गया। यह वृद्धि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में निरंतर वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग का परिणाम है। लू, बाढ़, सूखा, जंगल की आग और उष्णकटिबंधीय चक्रवात जैसी चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि हुई है, फलस्वरूप महाद्वीपों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अत्यधिक प्रभावित हुई है।
इन घटनाओं के कारण कृषि उत्पादन में कमी, जल संकट, स्वास्थ्य समस्याएं और आपदा प्रबंधन की चुनौतियां उत्पन्न हुईं हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। प्लास्टिक ओवरशूट डे 2024 रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन 12 देशों में शामिल है जो विश्व के 60 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन नहीं हो पाता हैं। भारत की प्रति व्यक्ति प्लास्टिक खपत लगभग 5.3 किलोग्राम है, जो वैश्विक औसत (20.9 किलोग्राम) से काफी कम है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत प्लास्टिक का पुनर्चक्रण किया जाता है, परंतु इस प्रक्रिया में अनौपचारिक क्षेत्र की अधिक भागीदारी से गुणवत्ता, मानक और सुरक्षा की चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या 2030 तक गंभीर जल संकट का सामना कर सकती है। भारत में विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, जबकि उसके पास केवल 4 प्रतिशत ताजे जल संसाधन हैं।
भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है। भारत सहित विश्व की कई नदियों में जल प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक है। गंगा, यमुना, गोदावरी, घाघरा जैसी प्रमुख नदियाँ अत्यधिक प्रदूषण का सामना कर रही हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023 के अनुसार, देश का कुल वन और वृक्ष आवरण 8.27 लाख वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 25.17 प्रतिशत है। भारत का लगभग 29.32 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण की चपेट में है। भूमि क्षरण के प्रमुख कारणों में जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक चराई, वनस्पति विनाश, मिट्टी का क्षरण और अनुचित कृषि पद्धतियाँ शामिल हैं। मरुस्थलीकरण से खाद्य सुरक्षा, पेयजल की उपलब्धता और ग्रामीण जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2024 में भारत में पीएम 2.5 स्तर में 7 प्रतिशत की गिरावट आयी है किंतु अभी भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से दस गुना अधिक है। भारत के 94 शहर विश्व के 100 सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल हैं। हालांकि कुछ शहरों में वायु गुणवत्ता में सुधार देखा गया है।
आज पृथ्वी गहरे संकट की ओर अग्रसर है, और इस संकट से उबरने की ज़िम्मेदारी संपूर्ण मानव जाति की है। पर्यावरणीय असंतुलन के कारण उत्पन्न होती जा रही वैश्विक चुनौतियों का समाधान केवल नीति या तकनीक से नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली में परिवर्तन लाकर ही संभव है। वर्तमान में विश्व भर में पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु इन प्रयासों को और अधिक व्यापक तथा सामूहिक बनाने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति में पृथ्वी को माता के रूप में सम्मानित किया गया है। यह दृष्टिकोण केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि एक गहरी नैतिक चेतना का प्रतीक है। “पृथिव्याः रक्षणं कार्यं, धर्मोऽयं मानवस्य च। या ध्रियन्ते जीवका यत्र सा माता पालनी सदा॥” अर्थात पृथ्वी की रक्षा करना प्रत्येक मानव का कर्तव्य और धर्म है। जिस पृथ्वी पर जीवन का आधार टिका है, उस माता की सदैव रक्षा की जानी चाहिए। जब तक हम पृथ्वी को मातृत्व भाव से नहीं देखेंगे, तब तक इसके संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता संभव नहीं। हमें अपनी जीवनशैली और सोच को पृथ्वी के अनुरूप बदलना होगा तभी सभी प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्धन संभव हो सकेगा।