भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु पूर्णिमा

गणतंत्र दिवस
प्रो. रवीन्द्र नाथ तिवारी 
( क्षेत्रीय निदेशक, म.प्र. भोज (मुक्त) विश्वविद्यालय )

भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान परमात्मा से भी ऊपर माना गया है। प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है क्योंकि इस तिथि को महाभारत एवं ब्रह्मसूत्र के रचयिता वेदव्यास का जन्म हुआ था। वेदव्यास ने 6 शास्त्र और 18 पुराणों की भी रचना कर मानव के कल्याणार्थ वेदों का सरलीकरण कर उनका विस्तार भी किया। इस तिथि को व्यास जी ने सर्वप्रथम अपने शिष्य और मुनियों को वेदों और पुराणों का ज्ञान दिया था इसीलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। महाभारत द्वारा उन्होंने संस्कृति के विचारों को उदाहरण सहित सरल भाषा में समाज के समक्ष रखा था। कृष्ण ने व्यास की प्रशंसा करते हुए कहा है कि मुनिनामव्यहम् व्यासः अर्थात् मुनियों में मैं व्यास हूँ। महर्षि व्यास युगद्रष्टा थे, उन्होंने जीवन को समग्र स्वरूप में माना था। व्यास ने माना था कि सगुण और दुर्गुण जीवन में साथ ही देखने को मिलते हैं। वर्तमान में संस्कृति के विचार जिस पीठ पर से प्रवाहित होते है उस पीठ को आज भी व्यास पीठ कहते हैं। महर्षि व्यास समाज के सच्चे गुरु थे इसलिए व्यास पूजा कालान्तर में गुरु पूजा कहलाने लगी और प्रत्येक वर्ष व्यास पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा के रूप में मनायी जाती है।

भारतीय ज्ञान परम्परा में गुरु की महिमा अनन्त मानी गयी है सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार लोचन अनंत उघाड‌यिा, अनंत दिखावणहार।। अज्ञान के अंधकार को समाप्त कर ज्ञानरूपी ज्योति जलाने वाले गुरु और जीवन के समग्र विकास की कामना रखने वाले शिष्य का संबंध अलौकिक होता है। गुरु की कृपा, आशीर्वाद, सविनय जिस भाग्यशाली व्यक्ति को मिल जाता है, उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है। गुरु के सानिध्य में शिष्य विनम्रता, जिज्ञासा और सेवा से युक्त होकर ज्ञानरूपी अमृत को ग्रहण करता है। यह वह देश है जिसका गुणगान देवता भी करते हैं। “गायन्ति देवाः किल गीतकानि, धन्यास्तुतेभारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात ।।” अर्थात् देवता भी स्वर्ग में यह गान करते हैं कि धन्य हैं वे लोग जो भारत भूमि के किसी भाग में उत्पन्न हुए। वह भूमि स्वर्ग से बढ़कर है क्योंकि वहां स्वर्ग के अतिरिक्त मोक्ष की साधना की जाती है। मानव को देवत्व प्राप्त करने के लिए उसे अपनी प्रवृत्तियों पर संयम रखना होता है। इस संयम की प्रेरणा गुरु के आशीर्वाद से मिलती है। गुरु अर्थात् जो लघु नहीं हैं और जो लघु को गुरु के रूप में स्थापित करे वही गुरु है। वास्तव में गुरु अपना संपूर्ण ज्ञान शिष्य को देकर उसे भूत, वर्तमान और भविष्य से परिचय कराता है। गीता में कहा गया है कि जीवन को सुन्दर बनाना, निष्काम और निर्दोष करना ही सबसे बड़ी विद्या है। इस विद्या को सिखाने वाला ही सदुरु कहलाता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि सदूरु वही है जिसे गुरु परंपरा से आध्यात्मिक शक्तिप्राप्त हुयी हो तथा वह शिष्य के पापों को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है।

भारतीय संस्कृति में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के समतुल्य माना गया है। गुरु पथ प्रदर्शक, विकास प्रेरक, हित चिंतक तथा उसका जीवन शिष्य के लिए आदर्श होता है। गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि जो अंधकार में प्रकाश, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के मध्य अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके, वही सच्चा गुरु है। योग दर्शन में भगवान कृष्ण को जगत्गुरु कहा गया है क्योंकि महाभारत के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। परमात्मा और संसार के मध्य तथा शिष्य और भगवान के मध्य सेतु का काम गुरु ही करता है। प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते थे। पहले गुरु उसे कहा जाता था जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात् आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान का बोध कराता था किन्तु कालान्तर में आत्मज्ञान देने वाले को गुरु तथा सांसारिक ज्ञान देने वाले को आचार्य कहा जाने लगा। हमारे देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, कृष्ण, शूरवीर अर्जुन, कर्ण, स्वामी विवेकानन्द गुरु के ज्ञान से ही सम्पूर्ण मानव जाति के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करने में सफल रहे।

भारत जब शिक्षा का प्रमुख केंद्र था तब उसका प्रमुख कारण गुरु, गुरुकुल और उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख आधार स्तम्भ थे। शिक्षार्थी अट्ठारह विद्याओं छ- वेदांग, चार वेद (त्रवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद तथा शिल्पवेद), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र का अर्जन गुरु के निर्देशन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अनुष्ठानपूर्वक अभ्यास कर सम्पादन करता था जिससे आजीविका चलाने में कोई परेशानी नहीं होती थी तथा प्रौढ़ावस्था तक आते जाते अपने विषय के निपुण ज्ञाता बन जाते थे। त्याग, वृत्तिसम्पन्न तथा धन की तृष्णा से परे आचार्य ही भारतीय शिक्षा पद्धति में शिक्षक माना गया है। शिक्षा को व्यवसाय और धनार्जन का साधन नहीं माना जाता था। वायु पुराण (77/128) में उल्लेख है कि गुरु रूपी तीर्थ से सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है।

प्राचीन भारतीय सनातन ज्ञान परंपरा अति समृद्धि थी तथा इसका उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समाहित करते हुए व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करना था जब सारा विश्व अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता था तब सम्पूर्ण भारत के मनीषी उच्चतम ज्ञान का प्रसार करके मानव को पशुता से मुक्त कर, श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त कर संपूर्ण मानव बनाते थे। इन गुरुकुल प्रणाली से निकले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि ने अपने ज्ञान के वैभव से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया। मुंगलों और अंग्रेजों ने भारत के गुरुकुल प्रणाली को कपटपूर्ण एवं छलपूर्वक तहस-नहस करने का प्रयास किया। तक्षशिला, नालंदा जैसे शिक्षण संस्थानों को काफी चोट पहुँचायी गयी। वर्तमान परिदृश्य में भारत सरकार द्वारा पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का लक्ष्य भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को सम्बल प्रदान करते हुए देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को प्राप्त करना है। इसका उद्देश्य ऐसे इंसानों का विकास करना है जो तर्क संगत विचार और कार्य करने में सक्षम हों, जिनमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिन्तन और रचनात्मकता, कल्पनाशक्ति एवं नैतिकमूल्य का समावेश हो।

भारतीय समाज में नैतिक मूल्य, चरित्र निर्माण, मानवीय संवेदना, करुणा का भाव अतिआवश्क है। वर्तमान परिदृश्य में चरित्र निर्माण, मानवीय संवेदना, अहिंसा, वसुधैव कटुम्बकम्, सर्वेभवन्ति सुखिन जैसे भारतीय सनातन संस्कृक्ति के मूलतत्वों में अपेक्षाकृत कमी दृष्टिगोचर होती है। भौतिकता और मशीनीकरण के दौर में हमारी अटूट, अविच्छिन्न, सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था में कहीं न कहीं अवमूल्यन दिखाई पड़ता है। वर्तमान परिवेश में नैतिक मूल्यों में कमी, भ्रष्टाचार, हिंसा, आतंकवाद एवं अराजकता का प्रमुख कारण भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को जीवन में आत्मसात नहीं करना है। गुरु पुर्णिमा के अवसर पर गुरु का पूजन करते हुए भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का हम सभी को संकल्प लेना होगा, तभी सच्चे मायने में गुरु पूर्णिमा की सार्थकता सिद्ध होगी।

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